जो पहाड़ों को चीरकर बहे अविरल, वही बनती है ‘गंगा’

गंगा असनोड़ा थपलियाल को प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए दिया जायेगा  उमेश डोभाल स्मृति सम्मान 2022

उमेश डोभाल स्मृति सम्मान 

कोविड काल के चलते पिछले दो वर्षों से स्थगित उत्तराखंड का प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति सम्मान इस वर्ष प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में जनपक्षीय पत्रकारिता करने के लिए रीजनल रिर्पोटर की संयुक्त संपादक गंगा असनोड़ा थपलियाल को दिया जा रहा  है।

गंगा असनोड़ा एक नाम भर नहीं 

यथा नाम तथा गुण को परिभाषित करती गंगा राह में आने वाली सारी बाधाओं को पार करते हुए अविरल सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता करती रही है, और अब रीजनल रिपोर्टर यू टयृब चैनल के जरिए इलैक्ट्रानिक मीडिया में भी कदम रख चुकी हैं। पहाड़ की समस्याओं को पिछले 17 से भी अधिक वर्षों से उठा रही गंगा का खुद का जीवन भी पहाड़ से कम नहीं रहा।

गैरसैण के वरिष्ठ पत्रकार स्व0 पुरूषोत्तम असनोड़ा एवं लीला असनोड़ा के घर जन्मी गंगा को पत्रकारिता का गुण तो विरासत में मिला था, विवाह भी वरिष्ठ पत्रकार स्व0 उमाशंकर थपलियाल के पुत्र स्व0 भवानी शंकर थपलियाल से हुआ जो खुद भी सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे, एवं रीजनल रिपोर्टर पत्रिका के संस्थापक एवं संपादक रहे। गंगा ने पत्रकारिता की शुरूआत अमर उजाला से की व लंबे समय तक श्रीनगर से ब्यूरो चीफ की जिम्मेदारी बखूबी संभाली।

नियति को कुछ और ही मंजूर था

सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि तभी गंगा के पैरों तले जमीन और सिर से आसमान दोनों एक साथ खिसक गए। पति और पिता समान श्वसुर दोनों एक ही दिन हदयाघात के चलते परिवार को अकेला छोड़ गए। अब पीछे रह गई गंगा, दो मासूम बच्चे, बुजुर्ग सास और रीजनल रिपोर्टर की जिम्मेदारी। पत्रिका को पढने वाले बखूबी जानते हैं कि गंगा ने न केवल बिलखते बच्चों व सास को संभाला वरन पत्रिका को भी निरंतर बेहतर बनाती रही। परीक्षा की घड़ी यहीं समाप्त नहीं हुई छह माह बाद पिता एवं भाई के पितृकर्म करवा रहे देवर को भी नियति ने परिवार से छीन लिया। अब घर में रह गई सिर्फ महिलाएं एवं बच्चे। गंगा का जीवटता ये कि घर में चलने वाले दुख की छाया को अपने पत्रिका एवं पत्रकारिता के कर्म पर न पड़ने दिया। परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी भी इन्हीं घायल कंधो पर थी।

संघर्ष यंही नहीं रुका 

नियति का क्रूर मजाक यहीं तक नहीं रूका, उसने एक-एक कर वो सहारे छीन लिये, जो बुरे दौर की हिम्मत थे। पहले पारिवारिक भाई, जो साथ रहकर हर तरह से मदद करते थे। फिर पत्रिका मार्गदर्शक वरिष्ठ पत्रकार ललित मोहन कोठियाल भी साथ छोड़ गए। नियति का खेल भी निराला निकला ,दुःख सहने की पराकाष्ठा पूरी नहीं हुई,  तो पिछले ही वर्ष कोविडकाल के दौरान पिता एवं सास माॅ ,दोनों पहले बीमार हुए और फिर दिवंगत। इतने दुखों के बाद मजबूत से मजबूत व्यक्ति भी ढह जाए, पर वो तो गंगा है। कैसे रुक जाती। सो झंझावातों से जूझती, बढ़ती कलम के लिए ऊर्जा और परिवार के लिए हिम्मत बनती गई।

कलम की इस सिपाही के संघर्षों को सम्मान देते हुए, उमेश डोभाल स्मृति ट्रस्ट ने  उमेश डोभाल स्मृति सम्मान के लिए चुना है। गंगा असनोड़ा थपलियाल को यह सम्मान प्रिंट मीडिया में किए उनके उत्कृष्ट कार्य के लिए दिया गया है। साथ ही इलैक्टानिक मीडिया में बारामासा की टीम के राहुल कोटियाल एवं मनमीत एवं इंटरनेट पत्रकारिता के लिए शीशपाल गुसांई को दिया जाएगा।

इस अवसर पर डॉ० वंदना नौटियाल डबराल की गंगा असनोड़ा थपलियाल के साथ बातचीत के कुछ अंशः

प्रश्नः आपने पत्रकारिता को क्यों चुना?

गंगाः पत्रकारिता को चुनकर इसकी पढाई की गई हो ऐसा नहीं रहा। यह मेरे जीवन का एक संयोग था या कहूं कि मेरे साथ जो भी घटित हुआ है, मेरा पत्रकारिता में आना उस सबकी भूमिका रच रहा था। ग्रेजुएशन की पढाई के लिए लखनऊ गई लेकिन वहां अस्वस्थता के चलते मुझे पढाई पूरी किए बगैर ही वापस लौटना पड़ा, अब मुझे अपने स्वास्थ्य से अधिक पढाई की चिंता सताने लगी। मेरी चिंता को समझते हुए बाबूजी ने गोपेश्वर महाविद्यालय से मेरा बी0ए0 का फाॅर्म भर दिया , जल्दबाजी में इसमें विषय चयन को लेकर सतर्कता नहीं दिखाई गई और विषयों का बेमेल होना ही पत्रकारिता में आने के लिए नींव का पत्थर बना। पत्रकारिता की पढाई के लिए गढवाल विश्वविद्यालय श्रीनगर जाना चाती थी लेकिन बाबूजी से कहने की हिम्मत न हुई। उन्हीं दिनों महाविद्यालय की पत्रिका में मेरी कहानी ”मृत्तिका“ छपी, जिसकी तारीफ उड़ते उड़ते बाबूजी के कानों में भी पड़ी, उन्होंने वो पढी और कथा शिल्प की तारीफ की। एक दिन अचानक बोले श्रीनगर में पत्रकारिता की अच्छी पढाई होती है, जाना चाहोगी? और मुझे मेरे मन की मुराद मिल गई।

प्रश्नः इस पूूरे दौर में आपके लिये प्रेरणास्रोत कौन रहा?
गंगाः बाबूजी और मेरी बूढी आमा मेरे लिए एक बड़े प्रेरणा स्तंभ रहे। ढाई साल की थी जब स्कूल जाने लगी तब ईजा कभी गैरसैण में रहती कभी हमारे मूल फयाटनोला में और मैं बाबूजी और आमा के साथ। छोटी सी बसाहट वाले गैरसैण की हमारी दुकान में तब क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय, आठ अखबार आते थे। बाबूजी दुकान संभालने के साथ ही इन अखबारों के संपादकीय भी बड़े ध्यान से पढते, यही उनके विश्वविद्यालय थे। उनके सानिध्य की मेरे व्यक्तित्व पर भी गहरी छाप पड़ी। मुझे खुशी है कि मै उनका अंश हूं। बूढी आमा की सकारात्मकता, सहनशीलता और पराक्रमी व्यक्तित्व ने विपरीत परिस्थितियों में भी मुझे जीना सिखाया। बूढे दादाजी के जाने के बाद आमा का जीवन संघर्षमय रहा, मैं अपने कठिन संघर्षों में उनको याद करती।
पारिवारिक समस्याओं के साथ पढने लिखने में यही शक्ति काम आई फिर भवानी शंकर जैसे दमदार व्यक्तित्व के नौ साल के साथ ने मुझे जो आत्मीय ऊर्जा दी। उसने झंझावतों के साथ आगे बढने में मुझे बहुत मदद की। हमारे शुभचिंतकों, रीजनल रिपोर्टर के लेखकों एवं पाठकों का जो सहयोग रहा वो अतुलनीय है। मेरे साथ मेरे बाबूजी, ईजा, सासूजी एवं बच्चों का संघर्ष भी कदम से कदम मिलाता रहा। मैंने जाना कि एक दूसरे को खुश देखने के लिए विपरीत परिस्थितियों में भी हम कितना सुंदर जी सकते हैं, यह हम सबने मिलकर कर दिखाया।

प्रश्नः महिला पत्रकारों के लिए आपका संदेश।
गंगाः महिला पत्रकारों के सामने आज भी वहीं समस्याएं हैं जो डेढ दशक पहले हमारे सामने रही। अचानक पत्रकारिता के बदले स्वरूप ने इन चुनौतियों को काफी हद तक बदला जरूर है लेकिन चैबीस घंटे तत्परता की अनिवार्य शर्त वाले इस काम को निभाना थोड़ा मुश्किल तो जरूर है लेकिन नामुमकिन नहीं। पत्रकारिता के क्षेत्र में कई तरह के विद्रूप होने के बावजूद यदि पत्रकारिता को इसकी नैतिकता और पत्रकार होने के गुणों की कसौटी पर रखकर कदम बढाया जाए तो कुछ बेहतर किया जा सकता है।

 

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